सुख है तो यही है कि दे सकें किसी को कुछ!
और पाने के लिए आनंद से अधिक न कुछ!
जी हां प्यारे दोस्तों,
न पेड़ सूखते हैं अपने फल फूल लुटाकर और न नदियां ही सूखती हैं कभी किसी की प्यास बुझाकर!
चांद, सूरज कभी निस्तेज नहीं हुए इस धरा को रोशन कर अपनी ऊर्जा से! कहाँ समंदर खाली हुआ हमें बारिशों से नवाज़ कर! और
कितने समृद्ध हो जाते हैं माता-पिता अपने बच्चों पर अपनी ममता एवं प्यार लुटाकर!
फ़िर भला क्यों रुक जाते हैं हाथ हमारे! बढ़ते नहीं मदद को किसी की ! ये भूल कर कि देने के सुख से बड़ा कोई और सुख है ही नहीं! और ये भी कि जो कुछ भी हम एकत्रित करते रहते हैं, संग्रहित करते रहते हैं आवश्यकता से अधिक! वो एक न एक दिन नष्ट होना तय है! क्योंकि वापसी तो खाली हाथ ही मुमकिन है हमारी! हम देखते हैं कि पंछी नहीं इकट्ठा करते कभी दानें अपने घोसलों में! क्योंकि उन्होंने ही सुना होता है मधुमख्खियों को गाते हुए ये गीत कि “ख़ाली हाथ शाम आई है!” जब उनका इकठ्ठा किया हुआ शहद चुरा ले जाते हैं इंसान ! अथाह धन और सम्पत्ति के बावज़ूद लोभी और कंजूसों को भूखे प्यासे दम तोड़ते!
तब एक अकेला दान ही है जिसे चुनने के लिए हमें गरज़ होती है बहुत बड़े हौसलों की , बल की और बुद्धि सामर्थ्य की तब कहीं कहलाते हैं कर्ण “दानवीर”। क्योंकि ” जिसने कुछ भी दिया ही नहीं …वो तो समझो जिया ही नहीं! तो ” आइए सुनते हैं दिल की बात और किसी और की ख़ातिर नहीं पर ख़ुद अपने सुक़ून और आत्मसंतोष की ख़ातिर बढ़ाते हैं मदद के हाथ …….कि देने के सुख को बांटकर ही सम्भव है आनंद का अनुभव भी! जो सर्वथा लेने योग्य है! जो तमाम सुखों के आगे का स्वर्ग है! कि केवल सुखी होना आनंदित होने की ग्यारंटी नहीं! मगर आनंदित होकर सुखी होने की आवश्यकता ही शेष नहीं रहती!……है न!
बहुत शुक्रिया…