दोपहरें….

दोपहरें
जब कपड़े सूख रहे होते हैं आंगन में !
बड़ी – पापड़ धूप के साथ -साथ सरकते रहते हैं इधर -उधर और
पूरा की पूरा माहौल , विविधभारती के पुराने गीतों पर आधारित हो जाता है !
सुबह के हो चुके कामों और शाम के न हो चुके कामों के बीच सुस्ताती
दोपहरें अक्सर खाली पड़ी रहती हैं बस ।
ये वही दोपहरें हैं जो माँएं बेटा – बेटियों की पढ़ाई की चिंता में गुज़ारा करती हैं ।
और जब
पढ़ -लिख कर दूसरे शहर चले जाते हैं बच्चें
फ़ोन सिरहाने रखकर सोते हैं माँ -बाबा !
मगर बच्चों को फुर्सत कहाँ ?
दिनभर काम कर थके -हारे बच्चें
शाम को घूमने निकल जाते हैं , यार -दोस्तों संग और घर फ़ोन करना पैंडिंग काम बन जाता है, वीकेंड के लिए !
जिसे अच्छे – बच्चें वक़्त मिलते ही जल्दी – जल्दी निपटा देते हैं ।
मम्मा – पप्पा को सच्ची कितना दुःख होता है जब बेमतलब बीस मिनट बात कर बिगड़ जाता है उनसे , बच्चों का टाइम टेबल !
दरअसल बच्चों को दोपहरों की क्या खबर ?
जब उनके पास हैं सतरंगी शामें , छोटी -छोटी रातें और व्यस्त से व्यस्ततम् सुबहें !
ज़िंदगी की दोपहरों से उनका कोई वास्ता नहीं होता !
फिर एक खुशखबरी शादी तय होने की
अचानक छुपा देती है , माँ – बाबा की दुपहरी
मेहमानों की लिस्ट , लेनदेन का सामान , खानसामें की सूची ,और खरीददारी !
शादी की तैयारियों में जब रातें भी छोटी पड़ जाती हैं ! तब दोपहरें जैसे पंछी बनकर जा बैठी हो कहीं !
कितनी सुहानी लगती है न वो दुपहरी जब बहन -बेटियों ,अड़ोसी – पड़ोसियों और मेहमानों से भरे घरों में , शगुन के मंगल गीत गूँजते हैं और एक आवाज़ किचन से आती है – ” सोनू के पापा , ज़रा रिकॉर्ड कर लो न प्लीज़ “
दोपहर में सुना करेंगे ।
फिर एक दोपहर उदास -सी , जब नई -नवेली बहू और बेटा , अपने शहर चल पड़ेंगे
और दोपहरें फिर घिरने लगेंगी ……
फ़ोन के उस सिरे से किसी और ख़ुशख़बरी के इन्तज़ार में , मगर उधर व्यस्तता कुछ और व्यस्ततम् हो चली होगी अब….!
ज़िंदगी की शाम से पहले ,सिर्फ और सिर्फ दोपहरें ही होती हैं ,दोपहरें ही बचती हैं ………………

शेष होते माँ – बाबा के लिए ।

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