‘हाय-वे’ के किनारे…
एक अकेला गुलमोहर ,बस रह गया है!
“सड़क चौड़ीकरण” में उसका एक-एक साथी जाता रहा !
बस गुलमोहर ही रह गया है अकेला !
अफ़सोस है उसे अपने किनारे होने का…यूँ चीखा वो तब भी था जब कट रहे थे उसके हमसाये !
-“बख़्श दो इन्हें ! किस बात की सज़ा देते हो??
मगर सज़ा ये ‘उसके’ लिए थी !
अकेले छूट जाने की !
वह कोस रहा था भाग्य को !
अपनी मर्ज़ी से कहाँ उगा था वो…
इन्हीं लोगों ने उगाया था उसे यहाँ !
वर्ना उसकी चाहत तो हमेशा जंगल ही थे ।
पर इस सच से अंजान है ‘गुलमोहर’
जंगल भी कहाँ सुरक्षित हैं अब !
पर जंगल का न्याय कुछ और ही होता है।
जंगल की आग भी अपना फैसला किसी एक को नहीं सुनाती !
गुलमोहर उदास है मगर….
उसके लिए हर एक इंसान गूंगा-बहरा है
और अंधा भी !
उसपर
हाय-वे के मोड़ पर एक अधकटे पेड़ की अंतिम साँसें उसे बैचेन किए जाती है !
उसकी थकी मांदी शाखें भेज रही हैं शोक संवेदना, सूख रही है उसकी आद्रता, खो रही है हरियाली !
गुस्से में है गुलमोहर, बड़े दिनों से नहीं दिए हैं फूल उसने!
अनजान है मगर, जानता नहीं बेचारा !
फूलों के होने न होने से क्या फ़र्क़ पड़ता है !
फूल तो उसकी बाहों में भी भरे पड़े थे ,जिसे काटा जा रहा है कल से….!
दरअसल बात “कुछ और” है !
जो उसकी समझ से परे है!
या फ़िर
जिसे कोई समझना ही नहीं चाहता!!
पृथ्वी दिवस (Earth Day) की हार्दिक शुभकामनाएं
शुभेच्छु –
डॉ. अनामिका भागवत
Founder at LIFEARIA