How to think Positive in Hindi
एक विचार बस अभी अभी आया है । बस कुछ ही क्षणों में ये बीत जाएगा बग़ैर अपनी कोई निशानी छोड़े और कोई दूसरा विचार उसका स्थान ले लेगा फिर कुछ इसी तरह तीसरा, चौथा और पाँचवा विचार ।
विज्ञान कहता है कि प्रतिदिन हमारे मन में लगभग 50 हज़ार विचार आते हैं । और ये सभी हमनें आमन्त्रित नहीं किए होते वरन् स्वतः आगमित होते हैं । हमारे लिए किसी सोचे हुए विषय या विचार पर भी ; बहुत लम्बे समय तक बने रहना सम्भव नहीं है । कभी शीघ्र और कभी कुछ समयांतर पर कोई दूसरा , तीसरा विचार बीच- बीच में हस्तक्षेप अवश्य करता है । फिर हमें स्मरण होता है कि हम किसी विषय विशेष पर विचारमग्न थे और हम पुनः उसी विषय पर आने का प्रयास करते हैं । परन्तु फिर कोई अन्य विचार हमें आकर्षित करता है और ये क्रम चलता रहता है …..अनवरत्
किसी विचार में होकर , जानते बुझते या सप्रयास उसपर बनें रह पाना सुखद है परंतु किसी विचार विशेष को खींच तान कर स्वयम् से दूर रखना कितना कठिन और चुनौतीपूर्ण होता है । यहाँ तक कि कई बार हमें ये अनुभव होता है कि कहीं हम अपने ही विचारों के दास तो नहीं ! ये संशय तब डर या भय में बदल जाता है जब हम ये जानने और समझने भी लगते हैं कि विचार ही हमारे जीवन की दशा और दिशा का निर्धारण करते हैं । यहाँ तक तो फिर भी ठीक है पर समस्या तब और विकराल रूप ले लेती है जब लाख प्रयासों के बाद भी हम अपने विचारों को वश में नहीं कर पाते या सन्तुलित नहीं रख पाते । और विचारों की ये उथल-पुथल हमारे आत्मिक प्रवाह को भी विचलित कर देती है ।
वर्तमान सन्दर्भों में जब हम ‘आपदा प्रबन्धन’ से लेकर ‘तनाव प्रबन्धन‘ और यहाँ तक की ‘जीवन प्रबन्धन’ जैसी बड़ी बड़ी बातें करते हैं तब उल्लेखनीय है कि जब कभी हम छोटी किन्तु महत्वपूर्ण बातों की उपेक्षा करते हैं तभी बड़ी समस्याएं प्रकट होती हैं ।
क्यों न विचारों के सम्बन्ध में भी कुछ गम्भीरता से विचार किया जाए । यदि इतिहास पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि हमारे ऋषि मुनियों, प्राचीन विचारकों, महान दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों और धर्म ग्रन्थों में भी विचारों पर गहराई से विचार किया गया है । आज भी ‘योग’ और ‘ध्यान’ को आधार बनाकर जीवन के प्रत्येक स्तर के उत्तरोत्तर विकास हेतु , इस दिशा में सकारात्मक प्रयास हो रहे हैं । परन्तु फिर भी आधुनिक युग में आत्मिक, मानसिक और भावात्मक विचलन, अस्थिरता और असन्तुलन जिस प्रमाण में परिलक्षित हो रहा है , वो चिंता का विषय है । और ये कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज अखिल संसार में जितनी भी शारीरिक रुग्णता है उससे कई गुना अधिक आत्मिक ,मानसिक व भावनात्मक रूप से मनुष्य पीड़ित है । और विचारणीय है कि ये हमारी भारतीयता की पहचान के साथ न्याय नहीं करती है । क्योंकि विश्व में ‘भारत’ और ‘भारत के लोग ‘ संसार की उस महान ,प्राचीनतम और सहिष्णु सभ्यता के संवाहक के रूप में जाने जाते हैं जो एक साथ सर्वथा विपरीत विशेषताओं का वहन करते हैं । जहां एक ओर हम अतिशय भावुक होते हैं वहीं दूसरी ओर विकट परिस्थितियों में भी दृढ़तापूर्वक अडिग बनें रहने का सामर्थ्य रखते हैं । परन्तु दुःखद है कि आज हम अपनी ये विशिष्ट पहचान खो रहे हैं । विश्व की अन्यान्य संस्कृतियों , विभिन्न परिस्थितियों व समय के प्रभाव ने हमें केवल सकारात्मक रूप से ही नहीं छुआ है बल्कि पराई नकारात्मकता ने भी हममें अवांछित परिवर्तन किए हैं ।
यदि हम किसी के अत्यंत विनम्र, सौम्य, मृदुल और सभ्य व्यवहार को देखते हैं तो याद रखना चाहिए कि ये उस व्यक्ति की आंतरिक शांति , प्रेम, करुणा, दया, संयम और भावनात्मक एवं वैचारिक सन्तुलन का बाह्य सुपरिणाम है । और ठीक उसी प्रकार यदि हम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो बहुत ही बुरे व्यवहार से ग्रस्त है । जो अपनी वाणी, व्यवहार , क्रोध व प्रतिक्रियाओं से अपने आस पास के माहौल को असहनीय बना देते हैं तो वास्तव में वे सहायता और सहानुभूति के पात्र हैं परन्तु सामान्यतया साधारण लोग उनपर क्रोधित होते हैं और असाधारण व्यक्तित्व उनपर अपनी दया बरसा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझते हैं । पर हमारी मनुष्यता ही हमें सोचने पर विवश कर सकती है कि जो व्यक्ति बाह्य रूप में ही इतना विचलित, असंयमित, अशांत और बिखरा हुआ है वो निश्चित ही भीतर से अत्यंत दुखी , टूटा हुआ और अवसादग्रस्त होगा अन्यथा पूर्ण स्वस्थ, सन्तुष्ट और सद्भावनाओं से सम्पन्न ; सामान्य मनुष्य भला ऐसा व्यवहार क्यों करेगा ।
समस्याओं पर बहुत बात हो चुकी अब हम समाधान पर लौटते हैं । इससे पहले कि हमारी मानसिक और भावनात्मक रूप से असन्तुलित और अव्यवस्थित स्थिति हमारे जीवन के अद्भुत आनंद व नैसर्गिक सौंदर्य को ही नष्ट कर दे , हमें यथासम्भव यथाशीघ्र ; अपनी अंतर्ज्ञानात्मक दृष्टि को जगाकर भावनाओं ,विचारों के उचित संयोजन एवं प्रबंधन हेतु सार्थक, सकारात्मक व परिणामकारी प्रक्रिया का क्रियान्वयन कर लेना चाहिए । इस सत्य को तो हम सभी जान गए हैं कि हमारा बाह्य जीवन हमारे आंतरिक जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है । और हमारी विचारधारा , भावधारा हमारे मनोविज्ञान के निर्माण का आधार है , जो स्वभाव के पुल से व्यवहार तक पहुंचकर ; हमारी वाणी के माध्यम से हमारी असलियत बता देती हैं। यद्यपि ध्यान व योग के द्वारा हम विचारों , भावनाओं को अनुशासित कर सकते हैं तथापि विचारों के संस्कार और सृजन हेतु हमें अंतर्ज्ञान के प्रकाश में पूर्ण सजगता एवम् समर्पण के साथ आत्मविवेक व नैतिक उत्तरदायित्व से परिपूर्ण होना होगा । केवल विचारों को आते जाते देखना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उच्च गुणवत्ता से युक्त समय के जल से एक-एक विचार को सींचना होगा, संस्कारित करना होगा । प्रत्येक क्षण के साथ, सौ फ़ीसदी जीना होगा एक एक विचार को, और उससे कहीं पहले योग्यता की कसौटी पर चुनना होगा हज़ारों मेसे कुछ चुनिंदा आदर्श विचारों को । विचार जो आशाओं ,सम्भावनाओं व सकारात्मक ऊर्जा से समृद्ध कर दे हमें । विचार जो मुक्त हों अतीत के बोझिल प्रभाव से और स्वतंत्र भी भविष्य के अनपेक्षित स्वप्न से और वर्तमान को पूर्णता व परिपक्वता का अद्वितीय उपहार देने वाले इन्हीं विचारों , भावों से सम्भव है ऐसी सृष्टि , ऐसा सुगन्धित सुंदर आंतरिक उद्यान जिसकी सुरभित बयार से प्रेरित हो सके जन- जन का अन्तस् और खिल उठे परमेश्वर के प्रेम व करुणा से रचित अनुपम सृष्टि …..
By Dr. A. Bhagwat
Founder of LIFEARIA