प्रार्थना का महत्व | हम प्रार्थना क्यों करते हैं?
सबसे पहले और सबसे आख़िर में भी जिसकी आवश्यकता बनी रहती है और बनी रहेगी हमेशा, वो सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रार्थना ही है।
क्योंकि वही हमारे जीवन का सुदृढ आधार भी है परन्तु दुःखद आश्चर्य है कि हम सभी ने प्रार्थना को केवल डर से, दुखों से,दर्द से, इच्छाओं से,आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से ही जोड़े रख्हा है। जबकि सोच कर देखिए यदि केवल कुछ मांगने के लिए ही प्रार्थना में होते हैं हम ,तो हमसे बड़ा कोई याचक नहीं ! यदि दुख और पीड़ा में ही उठते हैं हमारे हाथ तब हमसे बड़ा कोई अविश्वासु नहीं! क्योंकि वास्तविक रूप से प्रार्थनाएं कभी नहीं होतीं कुछ भी मांगने के लिए पर फ़िर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रभु हम सभी की अधिकतर मांगे पूरी कर देते हैं! और जो ख्वाहिशें पूरी नहीं होती हम उन्हें लगातार मांगते रहने और यहां तक कि प्रभु से रुष्ट होने से भी बाज़ नहीं आते मानों प्रभु पिता परमेश्वर हमारे कर्ज़दार हैं और हम सभी वसूली भाई!!
पर हममें से कितने ऐसे सुभागे हैं जिनके सर ,मन के आभारी होने पर झुक जाते हैं प्रार्थनाओं में ! और सार्थक हो जाता है जीवन !
क्योंकि ‘प्रार्थना’ इस एक शब्द के साथ ही शुरू हो जाती है अन्तस् में कैसी अद्भुत, अप्रतिम, अद्वितीय, अनुपम और अलौकिक शांति ! क्योंकि सुख हो या दुख जीवन में प्रार्थनाओं की प्रासंगिकता सदैव बनी ही रहती है । पर वास्तव में जब कभी हम एक बेहद पवित्र सकारात्मक आत्मिक स्थिति में रहते हैं तो वो निश्चित ही “प्रार्थना” की स्थिति है । दरअसल प्रार्थना में बने रहना ही हमारा मूल स्वभाव भी है, इसके जीते जागते उदाहरण हैं बच्चे ! जो हमेशा ही बस मज़े में रहते हैं । मन में निश्छलता और होठों पर मुस्कान लिए !
कभी सोचा है क्या ? क्या वे प्रार्थना में नहीं होतें !
और वे सभी जो घण्टों आँखें मूंदें प्रार्थना में रहने का दम्भ भरते हैं, क्या सच में वे सभीं प्रार्थना में बने रहते हैं हमेशा ही ?
वास्तव में प्रार्थना का सम्बंध सदैव ख़ुद से ही होता है अर्थात प्रार्थनाएं ज़रूर दूसरों के लिए भी की जाती हैं ! की जानी भी चाहिए मग़र कुछ बातें तो ज़रूर उल्लेखनीय हैं जैसे –
हमारी प्रार्थनाओं का सम्बंध सदैव ख़ुद से ही होता है भले ही हम प्रार्थना किसी और के लिए ही क्यों न कर रहे हों ! क्योंकि हम जब भी किसी और के लिए सच्चे दिल से प्रार्थना कर रहे होते हैं तब यक़ीनन उसकी पीड़ा हमारी पीड़ा बन चुकी होती है अर्थात वो निश्चित ही हमारा कोई बेहद अपना होता है ! और इसीलिए उसकी पीड़ा या दुख दर्द हमें भी बुरी तरह विचलित कर देता है तभी हम उसके लिए स्वयं को प्रार्थना में पाते हैं!
पर सोचिए जो हमारी पीड़ा से आहत होकर सदैव प्रस्तुत रहते हैं मन में हमारे! यदि हम “किसी पल” भी उसके हो जाएं( या कि उसको ख़ुद में महसूसते हुए बस खुद ही के हो जाएं….. !)
तो वो पल निश्चित ही “प्रार्थना” का है ।
क्योंकि ह्रदय की अनंततम गहराई से स्वतःस्फूर्त होने वाली प्रार्थनाएं कभी हमारे हाथों में नहीं होती बल्कि सौभाग्य से हम उन प्रार्थनाओं का हिस्सा बन पाते हैं जो निस्वार्थ और बेहद मासूम होती हैं कि उनका सम्बन्ध होता है आत्मा में बसे परमात्मा से और परमात्मा के अंशात्मा से….!
और हाँ!!
मैं हूँ प्रार्थना में अभी
क्योंकि…..ह्रदय में गहरा और बेहद गहरा हो रहा है प्रेम…….आँखों में आनंदाश्रु भरे पड़े
हैं……..पलकें बन गई हैं उसके स्नेह के झरने………मन आभार से हल्का हो रहा है…..
और सुबह की लालिमा और प्रकाश को साथ लिए स्वयं सूर्य के रूप में कर रही है “परमशक्ति” ही संवाद……!
मैं थम गई हूं या जहां ….! पता नहीं…..!
पर सुक़ून के इस गहरे ऑरा से बाहर आने का मन नहीं है ज़रा भी…….अहं!
बहुत शुक्रिया-
by Dr. A. Bhagwat
founder of lifearia