मैंने बहुत शिद्दत से जाना है ;
जब शामिल नहीं थी मैं
“ कारवाँ ए ज़िन्दगी ” में
तब भी भाग रही थी ज़िन्दगी; बेख़बर!
और शामिल होने से मेरे थमी नहीं थी ज़रा भी कि उसकी रफ़्तार को हमारी गरज़ नहीं होती! ) क्योंकि हमारे शामिल होने न होने से कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता उसको । हमारे मरने से पहले भी कई दफ़ा छूट चुकी होती है ज़िन्दगी हमसे और ज़िंदा होना अपनाऐं जाने की ग्यारंटी भी नहीं ..
ये सच है कि ज़िन्दगी ज़िम्मेदार होती है महज़ ख़ुद के लिए…बड़ी ईमानदारी से बग़ैर रुके वो करती है अपना काम बढ़ते चले जाने का; लगातार…..मग़र हम भूल जाते हैं अक़्सर अपना काम (जीने का )
हाँ हम ज़िन्दगी की तरह ईमानदार नहीं होते । नहीं याद रखते कि दरअसल हमें भेजा गया है बस सौ फ़ीसदी जीने के लिए!
ज़िन्दगी तो हमें ठीक वैसे ही स्वीकारती है जैसे हम हैं मग़र हम हैं कि उसे हमेशा अपने अनुरूप बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं ।
कभी देखना बीच प्रवाह में शाख़ से छूटे किसी पत्ते को!….प्रवाह के असंतुलन, अनियमितता , अति या अगतिशीलता का असर लिए बग़ैर उससे प्रभावित हुए बग़ैर कैसे निश्चिन्त , निर्भय और निर्विकार सा बहता रहता है बस।
अपने आदी और अंत से बेख़बर।
ऐसी अद्भुत अद्वितीय अलिप्ति उसे कैसा अलौकिक आनंद देती होगी !
ये सच है कि ज़िन्दगी का रहस्य खुले न खुले खूबसूरत ही होता है! उसकी अदाओं का मोहपाश हमें कभी मुक्त नहीं होने देता । उसका जादुई आकर्षण जन्म से पहले भी होता है और मृत्यु के परे भी बरक़रार ….!!
….तभी हम जा – जा कर लौट आते हैं अक्सर फिर यहीं ( या आना चाहते हैं! )
जब हम मुक्ति की बात भी करते हैं…..या ज़िन्दगी के प्रति एक तरह से अलिप्ति का अनुभव करते हैं तब भी दरअसल हमें ऐतराज़ जीवन से न होकर जीवन के दुखों से होता है और जब दुखों की जगह सुख आ जाते हैं तो यक़बयक हम जश्न में शामिल हो जाते हैं और हमें ज़िन्दगी से कोई शिक़ायत नहीं रह जाती फ़िर! पर इस सब में ज़िन्दगी उपेक्षित ज़रूर होती है …..
यहाँ ग़ौरतलब है कि ज़िन्दगी कोई मोनालिसा की तस्वीर नहीं जिसकी मुस्कुराहट में दुःख छुपा हो…या दुःख में मुस्कुराहट ; मग़र यक़ीनन ज़िन्दगी ठीक वैसी प्रतीत होती है जैसी हमारी मनस्थिति होती है । और इसीलिए हम भूल जाते हैं कि जितना हम देख पाते या समझ पाते हैं जीवन का विस्तार उससे कहीं अधिक है और हमारी दृष्टि सीमा उसके विस्तार , उसकी गहराई को घटाने या बढ़ाने का सामर्थ्य नहीं रखती । फिर भी हम बहुत बड़ी भूल कर बैठते हैं उसे कोसने की ; जब वो हमारी इच्छानुरूप नहीं होती । जब कि सच्चाई ये है कि यदि ज़िन्दगी हमारी इच्छा से चलने लगे तो सोचिए किसी दूसरे की इच्छा का क्या होगा! क्योंकि हम सभी की इच्छाएं कभी एक सी नहीं होती । हम सभी एक दूसरे से अलग हैं और हमारी इच्छाएं भी अलग अलग । फिर ऐसे में एक के साथ न्याय दूसरे के साथ अन्याय हो सकता है । शुक्र है कि ज़िन्दगी किसी के साथ ईमानदार या बेईमान नहीं होती । पर क्या इस बात पर यक़ीन किया जा सकता है कि ज़िन्दगी ख़ुद अपनी मर्ज़ी की मालिक होती है !
जी हाँ यही , यही वो सवाल है जिस पर न सिर्फ़ सोचने बल्कि गहन चिंतन की आवश्यकता है । क्योंकि अज्ञान की इसी अंधी गुफ़ा के पार ज्ञान के उस सूरज से साक्षात्कार होगा जो हमें पूर्ण आश्वस्ति का अनुभव देगा ; जब हम न केवल जानेंगे बल्कि मानेंगे भी कि वास्तव में ” अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र पर ज़िन्दगी है!”
कोई और जिसे हम सर्वशक्तिमान , परमेश्वर , परम् पिता परमात्मा या ऐसे ही अनेक नामों से जानते हैं ; परन्तु अंततोगत्वा वह एक ही है और उसी एक के प्रति ईमानदार है , समर्पित है “ज़िन्दगी” । जिसे हम हमारी कहते हैं क्या सच में वो हमारी है भी ?
नहीं ; ज़िन्दगी सिर्फ और सिर्फ उसी की है जिसनें उसे बनाया है पर फिर भी ये दुःख की बात नहीं वरन् सुखद ही है क्योंकि यहाँ विचारों के इस मोड़ पर हमें उस खूबसूरत सवाल का जवाब मिलता है कि आख़िर उस ईश्वर ने इतनी सुंदर दुनिया, इतना अप्रतीम जीवन, इतनी बेहतरीन ज़िन्दगी किसके लिए बनाई है? हमारे लिए ही न !हम जिनसे “वो” इतना प्यार करते हैं कि उनके प्यार का सागर कभी किसी के लिए भी कम नहीं पड़ता । और सौभाग्य से जो ये जानते भी हैं कि उनके प्रभु उनसे कितना प्यार करते हैं , वे ज़िन्दगी से प्रभावित हुए बग़ैर जीने का हुनर सीख़ जाते हैं इसी को यूँ भी कह सकते हैं कि जिस किसी पर उसका प्रभाव हो जाए उसपर किसी और प्रभाव की कोई गुंजाईश ही नहीं होती फ़िर । जिस सुभागे पर एक दफ़ा “उसका” रंग चढ़ जाए उस पर कोई और रंग भला कैसे चढ़ सकता है !
है न!
बहुत शुक्रिया…
डॉ. ए. भागवत