यूं तो बहुत सी बातें होती हैं! घरों में, बाहर, लोगों से, गैरों से, गैरों से, अपनों से, परायों से, मगर कुछ बातें होती हैं या कुछ भी बातें होती हैं उस फितरत की, कि जिनका वास्ता होता है सिर्फ खुद से या फिर किसी ऐसे से जो हमें खुद से भी ज्यादा अज़ीज़ हो! जिसके सामने नहीं गिनते हम खुद को भी! हमारी हर बात को रहता है बस एक उसी का इंतज़ार! जिसके होने से ही हो जाती हैं, हो सकती हैं बातें मुकम्मल! जिसकी ग़ैरमौज़ूदगी से भरने लगता है खालीपन सा जहन में! और जिसे पाकर तय हो जाता है, बातों का खुशनुमा सफर….. है न!