सोचने समझने वाली बात 08
प्यारे दोस्तों, सादर नमस्कार
स्वागत है आप सभी का आपके अपने यू ट्यूब चैनल ‘लाइफेरिया’ के इस मंच पर जहां आज हम बढ़ रहे हैं एक और बेहद जरूरी और सोचने वाली बात की ओर पर इससे पहले की मैं शुरुआत करूँ मैं आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूँ आपके साथ,सहयोग, समर्थन और प्रोत्साहन का जिसके लिए लाइफेरिया आपका शुक्रगुज़ार रहेगा हमेशा हमेशा !
तो चलिए करते हैं शुरुआत – एक दफा कुछ यूं हुआ कि एक शख्स तीन दिनी रेल यात्रा पर निकल पड़ा किसी ऐसे शहर के लिए जहां वह पिछले दस वर्षों से जाना चाह रहा था। परंतु किसी न किसी कारणवश उसकी यह दिली ख्वाहिश पूरी नहीं हो पा रही थी ! कभी नौकरी के मसलें, कभी पैसों की समस्या और कभी कुछ और अड़चन, जिसकी वजह से वह अपने पसंदीदा शहर, अपनी पसंदीदा जगह का आनंद उठा ही नहीं पा रहा था! ख़ैर! बड़ी लंबी प्रतीक्षा और प्रयत्नों के बाद आखिरकार किस्मत मेहरबान हुई और इस बंदे को मौका मिला अपने सपनों को सच करने का! यूं तो कुल मिलाकर उसे केवल 36 घंटे अर्थात बस डेढ़ दिन ही मिलना था वहां गुज़ारने के लिए! पर अभी इस बात की ओर ध्यान ही कहां जा रहा था मोहतरम का! अभी तो खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था! और बड़े ही जोश और उत्साह से वह अपने गंतव्य तक पहुंचने की तैयारियों में जुट गया! बड़ी ही बैचेनी से बस यही सोचते हुए कि वहां पहुंचकर क्या करना होगा और कैसे? कहां-कहां सेल्फी लेना है कहां-कहां की तस्वीरें? और कहां से शॉपिंग? और कहां किस स्पॉट पर सबसे ज़्यादा वक्त गुज़ारा जाएगा ? कैसे टाइम मैनेज होगा? यहां तक कि 36 घंटों की समय सीमा को किस प्रकार खींच – तानकर लंबा किया जा सकता है? इस पर भी रिसर्च शुरू हो जाती है! वहां से होकर आए लोगों के अनुभव जानने के लिए फोन लगाना , नोट्स बनाना ! कुल मिलाकर एक एक लम्हें , एक-एक प्रहर का हिसाब-किताब तैयार किया जाता है! पूरी एहतियात के साथ कि कहीं कोई चूक न हो । क्योंकि वहां इन दिनों सर्दियां रहती हैं बहुत, तो गर्म कपड़ों की व्यवस्था, रहने और खाने की फाइव स्टार सुविधाओं पर अग्रिम खर्च और बुकिंग ताकि ऐन मौके पर परेशान ना होना पड़े और प्रभु की असीम कृपा से आन पड़ता है वह वक्त भी जब स्टेशन पर गाड़ी तैयार है और ये महानुभाव जिन्हें स्टेशन तक विदा करने सभी परिजन, मित्र, सहकर्मी उपस्थित रहते हैं! और रेलगाड़ी छुक-छुक,छुक-छुक!
अब बंदा सोचने लगता है कि कितनी पुरानी है यह ख्वाहिश, कितना पुराना है यह ख्वाब? और उसे याद आते हैं पुरानी फिल्मों में देखें गए वो मंज़र, जिन्हें देखते हुए उसे प्रेम हो गया था उस जगह से! जहां महज़ दो रात और तीन दिनों में पहुंचना है उसे! बिल्कुल तभी बारिश शुरू हो जाती है झमाझम! चलती हुई ट्रेन से कितनी खूबसूरत दिखती है ना बारिश !कुछ ही देर में हाज़िर होता है, बड़ा ही स्वादिष्ट भोजन! उस पर अगले ही स्टेशन से कुछ तीन-चार बेहतरीन लोग भी शामिल हो जाते हैं सफ़र में उसके, जो उसी की तरह संगीत और साहित्य प्रेमी भी होते हैं! अब सफ़र का मज़ा दोगुना नहीं बल्कि कई कई गुना बढ़ चुका होता है! इतने खुशनुमा मौसम में जब ट्रेन ही नहीं दौड़ती पटरियों पर बल्कि वक्त के भी पंख उग आते हैं! और एक दिन गुज़र चुकता है । हालांकि इंतज़ार अब कुछ और गहरा हो चुका होता है, मंजिल पर पहुंचने का! सफ़र का मज़ा भी और और गहराने लगता है, जब ट्रेन गुजरती है हरी-भरी फूलों की खूबसूरत घाटियों से! ट्रेन के सफर में खिड़की वाली सीट व्यक्ति को बार-बार भाग्यशाली होने की गारंटी देती है। यह भी गौरतलब है कि एकाध दिन के गुजरने पर ही मनुष्य एक दूसरे से काफी घुलमिल जाते हैं ! तो यात्रियों की टोली से कुछ मधुर गायक भी निकल आते हैं! और आकाशवाणी के किसी बेहद उम्दा कार्यक्रम की तर्ज़ पर खूबसूरत शायरी और लाजवाब संगीत की ऐसी जुगलबंदी शुरू होती है कि जिस की महक में रेल विभाग के पकवानों की खुशबू भी फीकी पड़ने लगती है! भई इस तरह तो पूरा की पूरा जीवन गुज़र सकता था! ये चार दिन का सफ़र कौन सी बड़ी चीज था! सफ़र ही था गुज़र भी गया! कुछ दोस्त प्यारे से नसीब हुए सो अलग और मोहतरम बड़े ही उत्साह से उठ खड़े हुए अपने सपनों की सरज़मीं पर पैर रखने को आतुर! अपनी मंज़िल पर , जहां एक स्टेशन जो बेहद खूबसूरत तो था पर ठीक वैसा नहीं जैसा सोचा गया था! एक शहर जो बहुत व्यवस्थित और डेवलप्ड भी, पर वैसा नहीं जैसा ज़हन में था! उसकी गलियां अपने पूरे शबाब पर ! फिर भी कुछ अलहदा उसकी सोच से! यूं तो हर मंज़र अपने आप में बड़ा ही सुंदर और अपनी नवैय्यत से मंत्रमुग्ध करता हुआ! मगर फिर भी कुछ था जो मिसिंग था! कुछ तो ज़रूर था जो सोचे हुए से अलग था! जिसे स्वीकारने में तकलीफ़ हो रही थी! अब वक्त ही है अच्छा हो या बुरा आख़िर गुज़र ही जाता है! तो इनका सफ़र भी खत्म हुआ और लौटते समय एक बुद्धूपन का एहसास लिए लौट रहे हैं जनाब ! लौट के बुद्धू घर को आए!
बीवी बच्चे स्वागत को आतुर! क्या करें, कैसे बताएं, क्या हुआ ?एकदम ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं जनाब! तभी चमक लौट आई उनकी आंखों में, क्योंकि सफ़र यह बड़ा हसीन था और खुशनुमां भी !जिसमें मिले थे उन्हें दोस्त कई और मंज़िल भले ही उस शक्ल-ओ-सूरत में ना मिली हो मगर चार दिनों का ये सफ़र तमाम उम्र याद रहेगा उन्हें। अब देखिए अपने बच्चों के सामने कितनी सुंदर व्याख्या कर रहे हैं जनाब! अपने सफ़र की…. प्यारे बच्चों, जिंदगी एक सफ़र है। मंज़िल मिले न मिले! हमें तो सफर को भी जीना आना चाहिए! और प्यारे दोस्तों, यहीं आकर पहुंचते हैं हम उस निष्कर्ष पर जो वास्तव में सोचने वाली बात है और ज़ाहिर है समझने वाली भी! जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ज़िन्दगी में हम सभी के कुछ न कुछ लक्ष्य ज़रूर होते हैं । एक मंज़िल होती है जिसे पाने की कोशिश हम सभी करते हैं। लेकिन सोचने वाली बात तो यह है कि मंज़िल कितनी भी खूबसूरत क्यों न हो! हमें सफर को भी खूबसूरत बनाना आना चाहिए क्योंकि मंज़िल आखिर उस फल की तरह ही होती है जिसे पाने के लिए हमें सफ़र रूपी रूपी वृक्ष को सींचना पड़ता है ! और यह भी कि यदि कोई भी सफ़र अंग्रेजी का सफ़र बन पड़ता है तो मन्ज़िलों का कुछ मजा नहीं बचता! वैसे ही यदि मंज़िल ना भी मिले या वैसे ही ना मिले जैसी चाही गई थी! तब भी सुहाने सफ़र की यादें काम आएंगी हमेशा। क्योंकि ज़रूरी तो यह है कि आईएएस अफसर बनना है तो पढ़ने में आनंद लेना सीखे हम । गायक बनना हो तो रियाज़ के प्रहर गिनना छोड़ना होगा और कड़ी मेहनत, मशक्कत और अभ्यास से प्यार हुए बग़ैर ही भला कैसे ओलम्पियाड में जीत सकेंगे हम? और यह भी कि जिसे हरी मिर्च और प्याज़ काटने से परहेज नहीं होता न, मास्टर शेफ़ भी वही बनता है …..है न !
बहुत शुक्रिया