सही मौके पर सही जगह

कल मेरे एक स्टूडेंट ने मुझसे एक ऐसा सवाल पूछा जो शायद उसे अपनी माँ से पूछना चाहिए था! एक और दूसरे स्टूडेंट ने भी एक अलग तरह का सवाल पूछा जिसके लिए मैंने उसे ये कहा कि मैं कोई सर्वज्ञ नहीं हूं भाई पर हां! इस सवाल का जवाब फलां फलां के पास ज़रूर मिलेगा और ज़्यादा सही और सटीक मिलेगा ।
पर आश्चर्य कि उन महोदय ने जानते बुझते सवाल का जवाब नहीं दिया!!
और उसे सलाह अलग दे डाली कि उसे अपने प्रश्न के समाधान के लिए गूगल या फिर कोरा पर जाना चाहिए!
हालात ये हैं कि स्कूलों में जिज्ञासु विद्यार्थियों की कमी हो रही है! युवा अपने ही घरों में ख़ामोश!!
महिलाएं सबकुछ यूट्यूब से जान लेना चाहती हैं!
आख़िर हम सबके साथ रहने का औचित्य क्या रहा??
यूँ यदि सबकुछ छोड़ छाड़ कर निकल पड़ें हम खोज में ख़ुद ही की तो ज़रूर प्रकृति से ही मिल जाएंगे उत्तर सभी!
शांत हो जाएंगी जिज्ञासाएँ सभी। मग़र सवाल वैरागियों का नहीं है! कि ख़ुद की खोज में निकले हुए को तो मिलकर ही रहते हैं हल सभी!
परन्तु हम यहां बात कर रहे हैं उन छोटी मोटी समस्याओं की, दुविधाओं की जिनके लिए एक मनुष्य को तलाश होती है किसी अपने की! किसी ऐसे की जो दे सकें उसके उत्तर सभी या उससे भी पहले जिससे पूछना आसान हो!
जिससे पूछने से पहले उसे सोचना न पड़े सौ बार!! क्योंकि स्कूली किताबें नहीं निकालती सभी प्रश्नों के हल! सही सलाह और मशवरें बाज़ार में नहीं बिका करते कभी! जिन्हें मोटी रक़म देकर खरीदा जा सके!
औऱ हर किसी के हाथों में मौज़ूद मोबाइल ही यदि दे सकता सभी जवाब……तो कोई मासूम गूगल पर ये टाइप कर नहीं क्विट कर जाता ज़िन्दगी की दहलीज़ से…. कि आख़िर “जीने के लिए क्या करना होगा??”
पर दुःखद ये है कि इंसानियत जब मरती है या हारती है तो बड़ी ही ख़ामोशी से मरती है! किसी को कानों कान ख़बर नहीं होने देती!!
कितना दुःखद है हमारा मौज़ूद होकर भी मौज़ूद न होना!! सही मौके पर सही जगह!
ताज़्ज़ुब हम सभी के पास कान तो हैं पर ग़ैरों को छोड़ों अपनों को सुनने का भी वक़्त नहीं!! यदि हमारा अर्जित ज्ञान और अनुभव किसी के काम ही न आए तो फिर वो किस काम का?
ग़ौर फ़रमाए तो पाएंगे कि अब अपने ही परिवार में एक दूसरे से कितना बतियाते हैं हम!!
अड़ोसी-पड़ोसी से,दोस्तों से कहाँ मिल पाते हैं? औऱ मिल भी लें तो कितनी सच्ची और सहज हो पाती हैं मुलाकातें! क्या बच पाई हैं हमारी आपसी मेल की क़्वालिटी या गुणवत्ता ?
आगे बढ़ना अच्छा है दोस्तों! यदि उसमें बनी रहे जीवन की खूबसूरती, उसकी सादगी और अपनापन …..और इससे पहले कि परमेश्वर की ये सुंदर सृष्टि, हमारा अपना ये खूबसूरत जहाँ! बन जाए एक अजीबोगरीब अजायबघर! हम सब मिलकर क्यों न पकड़ लें एकदूजे की आँखों में ही सभी सवालातों को!
और मुस्कुराहटों में समेटे जवाबों से ही हल करलें मसलें सभी….कि इस धरा पर आज और हमेशा एक इंसान को इंसानियत और अपनेपन से ज़्यादा और किसकी गरज़ है भला……है न !
बहुत शुक्रिया….

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