थप्पड़ परम्परा…!
“थप्पड़ परम्परा!”
दिल के नक़्शे को बदल कर रख दिया है, गालों पर पड़े थप्पड़ ने!
हाँ! अभी “थप्पड़” देख रही हूं मैं!
यूँ तो अकेली ही हूँ….!
पर यूँ लग रहा है कि जैसे कई कई …शायद हज़ारों स्त्रियां मेरे भीतर हैं जो देख रही हैं… हज़ारों साल….. कई सदियां…. कई युग …पीछे जाकर!
एक “थप्पड़”! जिसकी गूंज किसी औरत के कानों में न सही पर दिल में गूंजती रहती है हमेशा!
जो धड़कन की तरह धड़कती रहती है उसके दिल में !
“आत्मसम्मान”नाम का बहुत सारे स्क्रैच लगा हुआ एक खिलौना होता है, हर अनब्याही लड़की के साथ!
जिसका चरमराकर टूटना तय होता है!… शादी के बाद!
जैसे बड़े दिनों के बाद बहुत-बहुत गहरे, …कोई सूखी पपडाई ज़मीन पर फ़िर उग आए हों, कई-कई हेक्टेयर तक ज़हरीले कैक्टस!
हाँ! मैं देख रही हूं थप्पड़ !
और देख रही हूं अपने भीतर एक स्त्री को थप्पड़ देखते हुए! थप्पड़ से गुज़रते हुए……!
और गुज़रते हुए उस एहसास से भी जिससे न जाने कितनी-कितनी बार गुज़रती हैं स्त्रियां!
थप्पड़ से गुज़र कर स्त्रियां ,स्त्री बनती हैं या कि स्त्री बनकर थप्पड़ से गुज़रती हैं!!! पता नहीं!
पर सोचनेवाली बात है न कि थप्पड़ भले ही एक ही हो मगर हर दफ़ा उसकी परिभाषा ,उसकी गूंज और उसके अर्थ अलग होते हैं !!
परम्परागत तरीके से पुरुषों से स्त्री तक पहुंचा हुआ थप्पड़ एकदम अलग होता है! जो आमतौर पर बड़ी ही सहजता से स्वीकार लिया जाता है, वहीं स्त्रियों से पुरुषों तक पहुंचे हुए थप्पड़ों की बहुत बड़ी क़ीमत होती है……!!
एक थप्पड़ जिसका एहसास वक़्त के साथ भय और चिंता में तब्दील हो जाता है! जब एक औरत माँ बनती है, बेटियों की! मगर………
काश! माँ ओं की ये चिंता ,ज़िम्मेदारी बनें बेटे – बेटियों की भी !!!
तब कहीं जाकर मुक्त होगी संसार से स्त्री-पुरुषों के बीच की “थप्पड़ -परम्परा”…….. है न !!
बहुत शुक्रिया….
by Dr. A. Bhagwat